इस वर्ष का मेरा पहला रिव्यू, और वह भी हिन्दी भाषा में! संयोग से जो मैगज़ीन रिव्यू के लिए मेरे सम्मुख आई है वह भी हिन्दी भाषा में ही है इसलिए हिन्दी में ही रिव्यू करना और भी सार्थक हो जाता है। यह है हाल ही में शुरु हुई मासिक पत्रिका - ‘मैं हूँ किसान’ जो कि कृषि एवं किसानों से जुड़े विषयों पर सामग्री प्रस्तुत करने के उद्देश्य से जयपुर स्थित हैनिमैन चैरिटेबल मिशन सोसाइटी नामक संस्थान द्वारा प्रकाशित की जा रही है। यह संस्थान लगभग दो दशकों से कृषि एवं किसानों के हितों और उनके विकास के लिए कार्यरत है।
मैगज़ीन की हालत बिल्कुल अपने विषय के अनुरूप ही है, कृषि की जैसी दुर्दशा है वैसी ही हालत में यह पत्रिका भी है। मैंने अपने रिव्यूस में पहले भी कहा है कि किसी एक क्षेत्र में अच्छा-खासा अनुभव रखने या संबंधित विषय के बारे में बहुत सी जानकारी-सूचनाएँ एकत्र कर लेने या उस क्षेत्र से संबंधित लोगों-अधिकारियों-विभागों आदि में जान-पहचान हो जाने मात्र से लोगों को अक्सर यह गलतफहमी हो जाती है कि वे उस क्षेत्र में या उस विषय पर एक बढ़िया मैगज़ीन प्रकाशित कर सकते हैं। और बस, उनकी इसी गलतफहमी का परिणाम होता है, ‘मैं हूँ किसान’ जैसी स्तरहीन मैगज़ीन। एक मैगज़ीन शुरू करने के विचार में कोई खराबी नहीं है, लेकिन ऐसे प्रकाशकों को यह समझना चाहिए कि जैसे उनके विषय के संबंध में उनकी दक्षता है, ठीक वैसे ही मैगज़ीन का प्रकाशन और संपादन एक अलग विधा है जिसकी जानकारी होना भी आवश्यक है।
‘मैं हूँ किसान’ पत्रिका को देखकर ही पता चल जाता है कि इसका कोई ब्राँड विज़न नहीं है। दरअसल इस पत्रिका के निर्माण में व्यावसायिक स्पर्श की कमी स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। मैं इसके चार अंकों को बारीकी से पढ़ने के बाद इस पत्रिका का रिव्यू कर रहा हूँ जिसमें पब्लिशिंग और संपादन से संबंधित त्रुटियों की भरमार है। इसका यह बुरा हाल तो तब है जबकि इस एक पत्रिका के एक नहीं, दो नहीं बल्कि तीन-तीन संपादक हैं - एडिटर, चीफ एडिटर और एडिटोरियल - सीईओ (यह अनोखा पद अपने मीडिया अनुभवकाल में मैंने तो कभी नहीं सुना कि यह होता क्या है, करता क्या है)।
विषय-वस्तु
सिर्फ इसकी टैग लाइन ही यह कहती है कि यह पत्रिका ‘किसानों की आर्थिक आजादी का सार्थक विकल्प’ है जबकि इसके चार अंक पढ़ने से इसका यह उद्देश्य कहीं नज़र नहीं आता। हर अच्छी पत्रिका की एक पर्सनेलिटी होती है, एक छवि होती है, एक रूपरेखा, एक स्ट्रक्चर होता है जिससे उस मैगज़ीन की पहचान बनती है और यही विशेष पहचान उसे दूसरी मैगज़ीनों से अलग खड़ा करती है; इसी बुनियाद की अनुपस्थिति ही ‘मैं हूँ किसान’ मैगज़ीन की सबसे बड़ी कमी है। इसके चारों अंकों में कोई स्ट्रक्चरल समरूपता नहीं है जो कि इस पत्रिका की संपादकीय अनुभवहीनता को दर्शाता है। इसी प्रकार की इनकंसिस्टेंसी इसकी भाषा, लेखनी, लेआउट और डिज़ाइनिंग में भी नज़र आती है जिससे एक पाठक की रुचि भंग होती है। इनकंसिस्टेंसी की हद तो इसके कवर पेज के टाइटल को देखकर ही पता चलती है कि सबसे पहले अंक में इसका टाइटल ‘मैं हूँ किसान’ लिखा गया है जबकि इसके बाद के अंकों में इसे ‘मैं हूं किसान’ लिखा गया है, सिर्फ पहले अंक में इसकी टैग लाइन और 'लोगो' डाला गया है जबकि बाद के अंकों में से ये गायब हैं। इसकी वेबसाइट की स्पेलिंग maihunkissan है जबकि इसके कवर पर इसे ‘mai hu kisan' लिखा गया है।
इस मैगज़ीन के विभिन्न लेखों में लेखन संबंधी विषमताएँ तो हैं ही, साथ ही लेखों में मूलभूत स्ट्रक्चर की कमी इसकी सामग्री को बेहद नीरस बना देते हैं। ऊपर से व्याकरण और वर्तनी संबंधी अनगिनत त्रुटियाँ इसकी संजीदा विषय-वस्तु की ओर ध्यान जाने ही नहीं देतीं बल्कि एक पाठक को इस पत्रिका से विमुख कर देती हैं। इसके लेख जानकारीपूर्ण और किसानों के लिए उपयोगी हैं लेकिन संपादकीय स्कैलेटन की कमी के कारण इसके अंकों की सामग्री का फोकस भी यहाँ-वहाँ हो रहा है जिससे इसकी टार्गेट ऑडियंस भी तय करना मुश्किल है। कुल मिलाकर इसका प्रत्येक अंक किसी एक मैगज़ीन का अंक नहीं बल्कि कुछ स्वतंत्र लेखों का संकलन मात्र लगता है।
डिज़ाइन
जैसी स्थिति संपादकीय विभाग की है, वैसा ही बुरा हाल इसकी डिज़ाइनिंग का है। यहाँ भी कोई विज़न, कोई समरूपता, कोई छवि नज़र नहीं आती। जैसे इस पत्रिका के लेखन और संपादन में कोई एडिटोरियल स्टाइलशीट काम में नहीं ली गई, वैसे ही डिज़ाइन विभाग भी डिज़ाइनिंग स्टाइलशीट के अभाव से ग्रस्त दिखाई देता है। फोटोग्राफी संबंधी कोई गाइडलाइन काम में नहीं ली गई हैं ना ही लेआउट के लिए किसी अनुशासन का पालन किया गया है। यहाँ तक कि डिज़ाइन और पेज लेआउट के मूलभूत नियमों का भी इसमें ध्यान नहीं रखा गया है। डिज़ाइन एलीमेंट्स या तो कहीं हैं ही नहीं, या फिर जहाँ हैं वहाँ बिना किसी सोच-विचार के, रैंडम ही डाल दिए गए हैं। यहाँ तक कि हर अंक के साथ इसके फोलियो तक में बदलाव हो रहे हैं। फॉण्ट्स का चयन, उनका आकार, रंगों का तालमेल आदि सबकुछ तुक्केबाज़ी सा लगता है। कुल मिलाकर मैगज़ीन का डिज़ाइन और लेआउट बहुत ही बचकाना और अनुभवहीनतापूर्ण है।
बेहतर मैगज़ीन्स के कवर पेजों से ही उनकी छवि स्पष्ट झलकती है। यहाँ ‘मैं हूँ किसान’ के कवर पेज ही इसके डिज़ाइन की दुर्दशा की कहानी बयाँ कर देते हैं। चार अंकों के चार कवर, और चारों की अलग-अलग स्टाइल। इसके टाइटल को भी निर्धारित नहीं किया गया है, हर अंक में इस पर अलग-अलग प्रयोग किए गए हैं। कवर की ग्रिड भी तय नहीं है और इसके मूल एलीमेंट्स भी हर अंक के साथ बदल रहे हैं जिसके कारण हर अंक का कवर किसी अन्य मैगज़ीन का ही प्रतीत होता है। कवर के मेन विज़ुअल भी बहुत ही बचकाना तरीके से स्टॉक इमेजेस को जोड़-तोड़ कर काम में लेकर बनाए गए हैं जिसके कारण वे अपना प्रभाव छोड़ने में पूरी तरह से विफल हुए हैं। कवर की विफलता में संपादकीय एवं डिज़ाइन, दोनों विभागों की अनुभवहीनता स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।
प्रिंटिंग
संभवत: इसकी अधिकतर फोटोग्राफिक सामग्री इंटरनेट से ही ली गई है इसीलिए उनकी गुणवत्ता भी स्तरहीन है। चूंकि इस तरह की सामग्री अलग-अलग जगहों से इकट्ठी की जाती है इसलिए उनमें विज़न और क्वालिटी से संबंधित असमानताएँ होना स्वाभाविक है लेकिन ऐसी परिस्थिति में प्रीप्रेस विभाग की जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है। लेकिन इस मैगज़ीन में तो मानो प्रीप्रेस का काम हुआ लगता ही नहीं है। फोटो फिनिशिंग, कलर करेक्शन आदि जैसे काम तो जैसे इस मैगज़ीन में हुए ही नहीं हैं। टेक्स्ट व अन्य डिज़ाइन एलीमेंट्स की छपाई सराहनीय है।
प्रोडक्ट
मैगज़ीन के कवर के लिए बढ़िया पेपर काम में लिया गया है, हालाँकि भीतर के पृष्ठों के लिए कम वज़न वाला और कम ग्लॉसी कागज काम में लिया जाता तो यह मैगज़ीन एक नियमित मासिक मैगज़ीन जैसी दिखती। फिलहाल यह किसी स्मारिका या प्रोडक्ट कैटेलॉग की तरह दिखती है। मैगज़ीन का आकार भी अभी तक तय नहीं हो पाया लगता है, पृष्ठों की सँख्या भी अभी बदलती रहती है। इसका सिर्फ पहला अंक सेंटर पिन बाउंड था जबकि बाद के अंक ग्लू बाइंडिंग वाले हैं। मैगज़ीन को पूरा खोलकर पढ़ने पर इसका एक-एक पेज निकलकर गिरना शुरू हो जाता है। 90 रुपए में मासिक मैगज़ीन के हिसाब से लगभग 60 पृष्ठ यूँ तो ठीक ही हैं लेकिन इसकी कंटेंट डेंसिटी बहुत कम लगती है।
कृषि एंव किसानों के विकास के विषय पर हमारे देश में पहले से ही बहुत सी अन्य पत्र-पत्रिकाएं-सामग्री प्रकाशित हो रही हैं, जिनमें से कुछ तो इस क्षेत्र में बहुत वर्षों से अपनी जबरदस्त साख बनाए हुए हैं। यदि ‘मैं हूँ किसान’ को इस क्षेत्र में, इसके पाठकों और विज्ञापन संस्थाओं के दिलों में अपने लिए जगह बनानी है तो उसे काफी संजीदा और व्यावसायिक ढंग से काम करना होगा। अन्यथा इस प्रकार की मैगज़ीन या तो साल-छ: महीने भर में चुपचाप बंद हो जाती हैं या फिर हज़ारों पत्रिकाओं की भीड़ का हिस्सा बन कर रह जाती हैं। बढ़िया मैगज़ीन तैयार करने के लिए बड़ी टीम की नहीं, बढ़िया टीम की आवश्यकता होती है।
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